मानसिक गुलामी
भारत संसार का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, इसी के साथ-साथ भारत शनैः शनैः पाश्चात्य सभ्यता की जंजीरों में जकड़ता हुआ एक बार फिर नई गुलामी की दहलीज पर दस्तक दे रहा है।
आज हर परिवार में पश्चिमी सभ्यता को अपनाने की होड़ सी लग गई है। जिसका नतीजा है, 'घर में नहीं खाने को खाला चली भुनाने को' वाली कहावत भारतीय समाज में शत् प्रतिशत लागू हो रही है। पाश्चात्य सभ्यता और विदेश जाने की ललक ने आज हर माँ-बाप को अपनी गिरफ्त में जकड़ लिया है। जिसका नतीजा है कि बच्चा अभी दसवीं कक्षा भी नहीं पास कर पाता है कि अभिभावकों के मन में कपोल कल्पनायें अंकुरित होने लगती है कि उसे विदेश भेजकर डाक्टर बनायेंगे, इंजीनियर बनायेंगे और अगर बच्चा पढ़ने में कमजोर हुआ तो किसी तरह स्नातक की डिग्री हासिल करवाकर उसे व्यापार की उच्च शिक्षा तो ग्रहण करवा ही देंगे। चाहे इसके लिए खेत-खलिहान बेचना पड़े या अपने आप को गिरवी रखना पड़े। इस सब के पीछे मात्र लालसा केवल समाज में अपना स्टेट्स बनाना कि मेरा बच्चा विदेश में पढ़ रहा है। सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि जनता को जागरूक करने वाले हमारे जनप्रतिनिधी अपनी जनता की बढ़ती मानसिक गुलामी और नष्ट होती भारतीय सभ्यता के केवल मूकदर्शक हैं।
हमारे जनप्रतिनिधी और इनके द्वारा बनीं सरकारों के मूकदर्शक होने का परिणाम है कि नीम, हल्दी और तुलसी जैसी महत्वपूर्ण औषधिय पौधों को विदेशियों ने पेटेंट करवाने में तत्पर रहे। यही स्थिति रही तो वह समय दूर नहीं जब खाद्य पदार्थो से लेकर जड़ी-बूटियों पर सभी पश्चिमी देशों का पेटेंट अधिकार होगा और देश के हर कोने में गिरजाघरों के घंटों की आवाज गँूजेगी।
आज नष्ट होती भारतीय शिक्षा और प्रचलित होती पश्चिमी शिक्षा का परिणाम है कि कुशाग्र भारतीय प्रतिभाओं को उच्च शिक्षा के नाम पर आस्ट्रेलिया, अमेरिका, कनाडा और यूरोप में बसाया जा रहा है। पहले से ही मानसिक रूप से पश्चिमी सभ्यता के आधीन माता-पिता इसमें पूरा सहयोग कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि हमारे देश को क्षति नहीं हो रही है।
भारत की आथिक स्थिति देश की जनता के समक्ष है कई उद्योग बंद हुए जिनसे भारतीय सभ्यता-संस्कृति जुड़ी हुई हैं अथवा विदेशी कम्पनियों के आधीन हो गई या होने के कगार पर है, मिशनरियों के आधीन दी जाने वाली शिक्षा को प्राथमिकता दी जा रही है और अधिकांश सरकारी स्कूल केवल दिखावा मात्र रह गए हैं। संस्थाओं के माध्यम से आम लोगों में नई-नई बीमारियों के उत्पन्न होने का डर दिखाकर विदेशी कम्पनियों की दवाओं को प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसका परिणाम है कि धूल और मिट्टी में पलने वाला किसान का बेटा भी पेदा होते ही दवाइयों के जंजाल में घिर जाता है। यही नहीं मानसिक गुलामी की हद तो यह है कि शहद और देशी घी जैसी शुद्ध देशी वस्तुयें किसान नहीं कम्पनियाँ बेच रही हैं।
इस मानसिक गुलामी का असर भारतीय पहनावा पर भी असर पड़ रहा है पहले लड़कियाँ चुन्नी ओड़ती थी धीरे-धीरे उससे भी उनका मोह भंग होता गया। इस तरह क्रमवार भारतीय सभ्यता और संस्कृति पाश्चात् की गुलामी की ओर अग्रसर है। यदि इसी तरह हम नहीं चेते तो हमें अपनी प्रतिभाओं के साथ ही अपनी सभ्यता और संस्कृति से हाथ ही धोना पड़ेगा साथ ही साथ मानसिक गुलामी में इस कदर जकड़ जायेंगे कि देश की अस्मिता ही नष्ट हो जायेगी।