मूर्तिकला के अनुपम उदाहरण है खजुराहो
कलाकृतियाँ भी किसी स्थल की सांस्कृतिक विशेषता हो सकती हैं- इसका सबसे अच्छा उदाहरण खजुराहो के रूप में लिया जा सकता है। खजुराहो मंदिरों का निर्माण दसवीं-ग्यारवहीं शताब्दी के बीच में चंदेल नरेशों ने किया था। एक सौ वर्ष की इस अवधि के दौरान उन्होंने कलापूर्ण, भव्य और मनोहारी पिच्चासी मंदिरों का निर्माण करवाया। इनमें से पच्चीस अभी भी मौजूद हैं। ये मंदिर भारतीय वास्तुशिल्प और मूर्तिकला के अनुपम उदाहरण के रूप में जाने जाते हैं। यद्यपि अधिकांश विदेशी पर्यटकों के लिए खजुराहो का मुख्य आकर्षण मिथुन मूर्तियां हैं पर देखा जाए तो खजुराहो में देखने के लिए और भी बहुत कुछ है। इतिहास बताता है कि श्रीर्ष के निधन के बाद भारत के राजनीतिक क्षितिज पर राजपूतों का वर्चस्व रहा। मध्य युग को तो एक तरह से राजपूतों का ही युग कहा जा सकता है। राजपूत स्वयं को अग्रिकुल का सदस्य मानते हैं। वैसे वैदिक साहित्य में राजपूत शब्द नहीं मिलता लेकिन यह सत्य है कि हिन्दू धर्म और संस्कृति की रक्षा में राजपूत सदैव आगे रहे। उन्होंने वीरता और शौर्य के नये मानक स्थापित किए। भारतीय संस्कृति में राजपूतों का सबसे महत्वपूर्ण योगदान विशाल, भव्य और सुंदर मंदिरों का निर्माण कहा जा सकता है।
नौवीं शताब्दी में बुंदेलखण्ड क्षेत्र में चंदेल एक बड़ी शक्ति के रूप में उभरे थे। उन्होंने इस क्षेत्र के बड़े भूभाग पर तीन सौ वर्षो से भी अधिक समय तक शासन किया। उन्होंने इस क्षेत्र में अनेक मंदिरों, महलों और दुर्गों का निर्माण करवाया। कहा जाता है कि उन्होंने अपनी राजधानी खजुराहो में पिचयासी कलापूर्ण- भव्य और मनोहारी मंदिरों का निर्माण कराया। जिसमें से पच्चीस मंदिर तो आज भी उनकी कलाप्रियता की कथा कहते हुए प्रतीत होते हैं। चंदेल कला, संगीत और स्थापत्य को बढ़ावा देने वाले शासक थे। उन्होंने एक सौ वर्ष की अवधि के दौरान इन मंदिरों का निर्माण कराया। संयुक्त राष्ट्र शिक्षा, विज्ञान और संस्कृति संगठन ने इन्हें भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखने हेतु इन्हें विश्व विरासत स्थल घोषित कर दिया है। खजुराहो में वैष्णव, शैव और जैन तीनों सम्प्रदायों के मंदिर मौजूद हैं। खास बात यह है कि इन मंदिरों की रचना में एक ही शैली का अनुसरण किया गया है। चैंसठ योगिनी, ब्रम्हा और लाल शुआन महादेव के मंदिर को छोड़कर सभी शेष मंदिर पन्ना की खानों से निकाले गए पत्थरों से बनाए गए हैं।
इन मूर्तियों के शिल्पकार मानव आकृतियों और मनोभावों के अद्भुत चितेरे थे। उन्होंने सभी मंदिरों के बाहरी भाग को विभिन्न भावपूर्ण मानव आकृतियों से अलंकृत किया। खजुराहो के मूर्तिकारों ने विभिन्न भावों को इतनी कलात्मकता से चित्रित किया है कि खजुराहो के मंदिरों को पत्थरों पर उकेरी कविता भी कहा जा सकता है। खजुराहो की मूर्तियों को पांच वर्गों में बांटा जा सकता है।
पहले वर्ग में विभिन्न सम्प्रदायों के मुख्य देवी देवताओं की मूर्तियां हैं। जिनको कि गर्भगृह में स्थान दिया गया है। दूसरे वर्ग में परिवार के सदस्य, अनुचर, गौण देवी देवता और द्वारपाल हैं। इन्हें आलों या ताक में स्थान दिया गया है। तीसरे वर्ग में अप्सराओं और सुर-सुंदरियों की मूर्तियां आती हैं। इन्हें मंदिर की बाहरी दीवारों, खंभों और छत पर उत्कीर्ण किया गया है। घरेलू जीवन की झलकियां, पाठशाला के दृश्य, नृत्यांगनाएं और मिथुन मूर्तियां चैथे वर्ग में आती हैं। इन्हें मंदिर की बाहरी दीवारों पर चित्रित किया गया है। पांचवें वर्ग में पशुओं की मूर्तियां हैं- शार्टूल, सीगों वाला शेर, उस पर सवार धनुर्धारी और उस पर एक योद्धा का आक्रमण। यहां के मंदिरों की विशेषता यह है कि प्रत्येक मंदिर एक चबूतरे पर बना है, जो आसपास के क्षेत्र से कुछ अधिक ऊंचाई पर है। यह चबूतरा दो काम करता है- मंदिर की परिक्रमा का रास्ता बनाता है तथा भक्तजनों को बैठने, विश्राम करने और चहल-कदमी करने के लिए स्थान प्रदान करता है। मंदिर की मध्य छत अनेक शिखरों का आभास देती है। सर्वोच्च शिखर गर्भगृह के ऊपर है। मंदिरों के विभिन्न भाग एक दूसरे के साथ भीतर और बाहर से जुड़े हैं। पूर्व से पश्चिम को जाने वाली एक धुरी पर बनाए गए ये मंदिर एक सम्पूर्ण इकाई का रूप धारण करते हैं। सभी मंदिरों में अर्ध मंडप, मंडप अंतराल और गर्भगृह हैं। कंदरिया महादेव जैसे बड़े मंदिर में अतिरिक्त स्थान भी मौजूद है।
खजुराहो ने चंदेल नरेशों का वैभव, पराक्रम और कलात्मक गतिविधियां देखने के साथ ही गुमनामी का दौर भी देखा है। चैदहवीं शताब्दी में जब आबू रिहान अल बरूनी ने भारत की यात्रा की तो उसने खजुराहो को एक सम्पन्न नगर के रूप में पाया। इब्न बतूता ने भी इस क्षेत्र के मंदिरों को साधु-सन्यासियों से भरा पाया। फिर खजुराहो लोकमानस में गुम हो गया। इन मंदिरों को दुबारा 1838 में खोजने का श्रेय ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी टीएस बर्ट को जाता है।