नैतिकता का सवाल
घर लौटकर मोहन के सामने समस्या थी कि वह क्या काम करे कि गृहस्थी का खर्च चले। पहले छड़ा था। माँ-बाप का सहारा उसके सिर पर था। इधर-उधर मारा-मारा फिरता। जब कभी किसी का काम कर देता तो भोजन पा जाता। परन्तु अब वह एक बेटी का बाप था। घर पर उसके माँ-बाप थे। उनको खिलाने की जिम्मेदारी भी उसकी थी। इन्हीं परेशानियों में घिरा मोहन एक किनारे बैठा सिगरेट फूँक रहा था। फिर उठा और बाहर आकर मन्दिर की ओर चल पड़ा। 'हे प्रभु! रास्ता दिखा। जब मैं बुरा था तो सभी सुधारना चाहते थे, अब मैं जेल से बाहर आ गया हूँ और अच्छे रास्ते पर चलना चाहता हूँ, तो कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। अब तू ही बता मैं कहाँ जाऊँ।' भगवान के सामने मोहन बड़बड़ा रहा था।
मन्दिर की घंटी बजी। घंटी की आवाज से मोहन का ध्यान भंग हुआ। उसने पलट कर देखा तो उसने सामने गाँव के मास्टर साहब खड़े थे। उसने उनको प्रणाम किया। 'मोहन तू कब आया। तेरे न रहने से दादा-दादी बहुत हलाकान होते थे। चल बड़ी अच्छी बात है अब उनको आराम मिल जायेगा' मास्टर साहब ने कहा।
'बस मास्टर साहब कल रात आया हूँ। अब गाँव में रहकर सब की सेवा करूँगा।' 'यह तो बड़ा नेक ख्याल है। आखिर तू इसी मिट्टी में पैदा हुआ इसको भूल कैसे सकता है। वैसे तू पढ़ तो पाया नहीं फिर रोजी-रोटी की व्यवस्था क्या बनायेगा। मास्टर सहाब ने मोहन की दुखती रग पर हाथ रख दिया था। मोहन ने सोचा क्या मास्टर से राय करना ठीक होगा। फिर साहस किया।
'मास्टर साहब यह समस्या मेरे को खाये जा रही है। पहले अकेले था परन्तु अब तीन मुँह खाने वाले और हैं। अपराध के रास्ते पर मैं जाना नहीं चाहता। भले लोगों की तरह जिन्दगी बसर करना चाहता हूँ। मेहनत मजदूरी कर लूँगा पर अब अपराध का रास्ता नहीं अपनाऊँगा'' निराश स्वर में मोहन ने अपनी बात कही।
तेरी सोच बदल गई यह देखकर बड़ा अच्छा लगा। पर यह तूने तो बताया नहीं कि वह तीसरा कौन है।
मेरी बेटी राखी। बी.ए. में पढ़ रही है। दादा-दादी के साथ उसके भी खाने-पीने और पढ़ाई की चिंता सता रही है। क्या करूँ आप ही मेरे भगवान हैं आप ही सही रास्ता सुझायें। कहते हुये मोहन रो पड़ा।
मास्टर ने मोहन को दिलासा दिलाया कि वह कोई न कोई रास्ता उसे बतायेगा।
दिन बीतते जा रहे थे। जेल में काम के एवज में मोहन को जो पैसे मिले थे वह तेजी से खिसकते जा रहे थे। ज्यों-ज्यों पैसे खतम हो रहे थे उसकी चिंता बढ़ती जा रही थी। उसे सुधाकर की बहुत याद आ रही थी। सोचने लगा कि सुधाकर ने कितना त्याग किया था। छोटी सी दुधमुँही लड़की को पाल-पोस कर उसे बी.ए. तक पढ़ाया। उसे काबिल बनाया और एक वह है कि पढ़ायेगा कैसे?
राखी घर में आई। उसने मोहन को देखा तो उसे लगा कि उसका पिता बहुत परेशान था। उससे उसका परिचय केवल कुछ दिनों का था। यदि सुधाकर ने न बताया होता तो शायद वह अपने पिता को पहचान नहीं पाती। परन्तु गाँव आकर उसके मन में एक सवाल अवश्य उठता कि क्या वह अब अपनी अधूरी षिक्षा पूरी कर पायेगी। जिस तरह से चीलर कथरी का मोह नहीं छोड़ पाता उसी तरह राखी की हालत भी साँप-छछूँदर सी थी। जाना होकर भी उसका पिता अनजान था। बात कहने या पूछने का साहस वह संजो नहीं पा रही थी। बाप-बेटी नजदीक रहकर भी दूर थे।
एक दिन मोहन से मिलने सुधाकर गाँव आया। सुधाकर को देखकर राखी बहुत खुश हुई। उसे देखकर मोहन को आश्चर्य हुआ वह सोचने लगा कि यदि राखी फिर से सुधाकर के पास रहने लगे तो शायद उसकी बेटी की जिन्दगी बन जाये। परन्तु अब वह बाहर था तो यह बात वह सुधाकर से कैसे कह सकता था।
रात आई! दोनों बैठकर आग सेंक रहे थे। राखी ने दो थाली में खाना परोस दिया और उन्हीं के पास बैठ गयी।
यार मोहन बड़ा अजीब है तू! आज मैं न आता तो शायद तू मुझसे मिलने आता ही नहीं। चल अपनी बात छोड़ कम से कम राखी का हालचाल दे जाता। इसकी अधूरी पढ़ाई के बारे में सोचता। सुधाकर ने शिकायत की। अरे ऐसा नहीं है।
फिर क्या है! तू ही बोल राखी क्या तू बी.ए. पूरा नहीं करना चाहती। सुधाकर ने बनावटी क्रोध से पूछा।
राखी मौन रही। मोहन के सामने वह क्या बोलती। यार सुधाकर मेरी माली हालत ऐसी नहीं है कि राखी की पढ़ाई का खर्च उठा सकूँ अब तो बस किसी तरह इसके हाथ पीले कर इसके घर भेज दूँ। तो गंगा नहाऊँ।
बड़ा ही सिड़ी है तू। तू नहीं पढ़ा सकता तो क्या हुआ जो पौधा मैंने लगाया है क्या मैं आगे उसे सींच नही सकता। राखी की चिंता छोड़ वह मेरी जिम्मेदारी है। यदि तू चाहेगा तो उसकी फिक्र मैं कर लूँगा। बस अब तू दादा-दादी की सेवा कर और जब मन चाहे शहर आकर राखी से मिल लेना। याराने स्वर में सुधाकर ने मोहन से कहा।
मोहन के आँखों में आँसू आ गये। राखी विचलित हो उठी। सुधाकर की बातों ने उसका मन मोह लिया था। परन्तु मोहन की खुद्दरी उसे रोक रही थी। मजबूरी और उसका विगत अपराधी जीवन उसे समझा रहा था कि राखी को यह अवसर न देकर वह उसके जीवन को बरबाद कर देगा। उसे यह भी भय था कि कहीं किसी रोज कोई कोने में उसकी गीता की तरह उसकी बेटी को भी अपनी हवश का षिकार न बना ले। तब बाप बेटी के सामने आत्महत्या करने के अलावा दूसरा चारा नहीं होगा।
मोहन के अपेक्षा राखी सुधाकर के निकट थी। उसका बचपन से जवानी तक सफर सुधाकर का हम सफर बनकर गुजरा था। मोहन के आने से पहले वह सुधाकर को अपना सब कुछ समझती थी। बदले हालात में सुधाकर की चिंता देखकर फिर से उसके साथ जाने के लिये दिल मचलने लगा। उसे भय था कि मोहन इन्कार न कर दे।
आशंका और भय में राखी ने ईश्वर से प्रार्थना किया कि वह मोहन को प्रेरणा दें। वह षहर जाकर अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी का सके। यहाँ उसे ढंग से रहने का वातावरण भी नहीं मिल रहा था। दादा-दादी मोहब्बत तो जाहिर करते थे परन्तु उम्रदराज होने के कारण वह केवल सेवा के अधिकारी थे। उसका पिता बेकार था और उसको लेकर हमेशा सोच में डूबा रहता था। घर में चिंता और परेशानी के साथ बिरानी छाई रहती थी।
यार सुधाकर जब तक मैं नहीं था तब तक राखी का पालन कर मेरे ऊपर तूने वह ऋण चढ़ाया है जो मैं अपने चमड़ी के जूते पहना दूँ तो भी मैं तेरे से उऋण नहीं हो सकता। परन्तु अब जब मैं आ गया हूँ तो अब मेरी जिम्मेदारी है। मुझे ही निर्वाह करने दें। भरे हुये स्वर में मोहन ने कहा।
राखी के दिल में निराशा पैदा हो गयी। इसे अपना भाग्य मानकर मन का दिलासा देने लगी। साथ ही ईश्वर से प्रार्थना भी करती जा रही थी। शायद उसके पिता का मन फिर जाये। फिर वह अपने मन को धिक्कारने लगी। स्वार्थ में डूबकर अपने जन्मदाता को भूल जाना चाहती थी। ऐसी पढ़ाई से क्या फायदा जो अपने माता-पिता के काम न आ सके। वह न जाने कब तक सोच में डूबी रहती पर फिर उसने सुधाकर को कहते हुये सुना।
क्यों तू लड़की की जिन्दगी को बरबाद करना चाहता है। तू कैसा बाप है जो प्यार के झूठे भ्रम में पड़कर उसे पढ़ाई से रोकना चाहता है। वैसे भी लड़की पराया धन है। एक दिन उसे किसी दूसरे के घर जाना है तो आज ही क्यों नहीं। आवेश में सुधाकर ने मोहन को फटकारा।
मन से मोहन भी चाहता था कि उसकी बेटी बी.ए. पास कर ले। उसकी शादी किसी पढ़े-लिखे घर में करके अपनी जिम्मेदारी से फारिग हो ले। परन्तु जो हालात थे उसमें राखी को वह सब कुछ देने में असमर्थ था, असहाय था। सोच में डूबा तय नहीं कर पा रहा था। अंततः फैसला करते हुये उसने कहा, चल भाई तेरी ही सही। जन्म देने वाले से अधिक पालने वाले का अधिकार होता है। अगर तूने इसकी परवरिश न की होती तो शायद यह मर खप गयी होती तब मैं किस पर अधिकार जताता बच्चों को क्या मिलना चाहिये मैं तो जानता भी नहीं इसलिये जो तू कहता है वही सही है। कहकर उसने अपने हथियार डाल दिये। पिता कै फैसले को सुनकर राखी बहुत खुष हुई। फिर एक बार उसकी अन्र्तात्मा ने उससे नैतिकता का सवाल किया कि जिस पिता को वह छोड़कर जाना चाहती है। अपनी बेटी के साथ रहने के चंद दिनों के अलावा उसे क्या मिला। आज जिस जिस्म और दिमाग के बारे में वह सोच रही वह किसने दिया है, नहीं यह उसके पिता के साथ अन्याय है।
पिता जी! आप और सुधाकर चाचा ठीक हो सकते हैं परन्तु मेरी इच्छा जानना आप लोग आवश्यक नहीं समझते।
हाँ क्यों नहीं। बोलो क्या कहना चाहती हो। एक साथ सुधाकर और मोहन ने पूछा।
आप दोनों के अलावा दादा-दादी भी हैं। उनके प्रति मेरी जिम्मेदारी भी बनती है। आज उन्हें छोड़कर यदि मैं जाती हूँ तो स्वार्थी कहलाउँगी। मेरा क्या पढ़ूँ या न पढ़ूँ मेरा हश्र निष्चित है, पढ़कर या बिना पढ़े सभी लडकियाँ किसी खँूटे से गाय के मानिद बाँध दी जाती हैं चाहे उस खूँटे का मालिक षिक्षित हो अथवा अशिक्षित। दूसरी बात अन्तोगत्वा घर की चाकरी ही तो करना है तो क्यों न दादा-दादी की सेवा में कुछ जिन्दगी गुजारूँ। इसलिये मैं तो कहती हूँ अब मेरी पढ़ाई के दिन खतम मुझे बी.ए.-एम.ए. करने में कोई सार्थकता नहीं दिखाई देती। कहकर राखी हाँपने लगी। जब दादा-दादी ने राखी के उद्गार सुने तो उन्हें दिली सुकून मिला परन्तु सकते में पड़ गये। अल्प प्रवास में राखी ने उनकी सच्ची सेवा की थी। उनको भी उससे मोहब्बत हो गई थी।
राखी के भविष्य और उसके जीवन पर चल रही चर्चा को वह सुन रहे थे परन्तु चुप थे। अब वह नहीं रूके।
बेटी राखी हम तेरी भावनाओं की कद्र करते हैं। हमारा क्या हम तो पके आम हैं अब टपके तब टपके। परन्तु तेरी पूरी जिन्दगी पड़ी है। तेरे खेलने-खाने और पढ़ने के दिन हैं अब तू हमारे चक्कर में पड़कर अपनी जिन्दगी को बर्बाद करे यह हम नहीं चाहेंगे। फिर मोहन आ गया है। वह हमारी देख-भाल कर लेगा तू निश्चित होकर सुधाकर के साथ शहर जा और अपनी पढ़ाई पूरी कर। यह मेरा आदेश समझ। बेटा मोहन देर मत कर इसे सुधाकर के साथ जाने दे इसी में हम सब का भला है।
दादाजी की बात सुनकर राखी की आँखों में आँसू आ गये। यदि आप सब की यही इच्छा है तो मुझे मंजूर है। मैं मंदिर में भगवान के दर्शन करके आती हूँ। राखी ने कहा।
राखी बाहर निकल आई। रास्ता सुनसान था। वह मंदिर की ओर बढ़ती रही परन्तु रास्ते में कोई नहीं मिला। मंदिर गाँव से बाहर था। जब राखी मंदिर में पहँुची तो मंदिर में केवल घृतदीप जल रहा था। उसके अलोक से कक्ष प्रकाशित था। कुछ क्षीण प्रकाश की रेखायें झरोखे से निकलकर बाहर का भी अंधेरा दूर कर रही थी।
मंदिर के अन्र्तकक्ष में सरमैय्या और पास्कल बैठे मदिरा का सेवन कर रहे थे। हल्का-हल्का सुरूर चढ़ना शुरू हुआ था। मंदिर में घंटी की आवाज से ध्यान भंग हुआ।
जा पण्डित जा देख तेरा कोई जजमान आया। चढ़ावे में क्या लाया उसे भी ला। दारू मैं लाया छोकरी तू ला। भगवान मेहरबान तो गधा पहलवान। वैसे ही इस वक्त मंदिर में कोई नहीं आता लगता है। कोई भूला-भटका राही या जरूरतमंद आ टपका है, जा भाई जा। थरथराती आवाज में पास्कल ने सरमैय्या पण्ड़ित को टोका।
हाँ जाना तो पड़ेगा। रोजी-रोटी का सवाल है। तेरी तरह कोई दारू की दुकान तो है नहीं। मेरा काम भक्तों के चढ़ावा से चलता है। उठते हुये सरमैय्या पण्ड़ित बोला, तू यहीं ठहर बस यों गया और आया।
जब सरमैय्या पण्ड़ित उपासना कक्ष में पहुँचा तो राखी आँख मूँद कर भगवान से प्रार्थना कर रही थी। पण्ड़ित ने मंदिर में चारों ओर निगाह दौड़ाई राखी और उसके अलावा कोई नहीं था। मन में मुस्कराया और उसके मन में पाप पैदा हुआ।
इस लड़की को मैंने पहले कभी नहीं देखा। यह इस गाँव की नही है। ऐसा प्रतीत होता है कि कहीं बाहर से भाग-भूग कर आई है। चलो यही मंदिर में पड़ी रहेगी तो मेरा भी काम चलेगा और भगवान की सेवा और टहल भी हो जाया करेगी।
बेटी! इतनी रात में अकेली मंदिर आई! कोई और नहीं साथ आया।
हाँ पण्ड़ित जी, मंदिर में कैसा भय। यहाँ तो निर्भय होने के लिये लोग आते है। फिर आप तो हैं ही। अकेलापन कहाँ रह गया। आपके साथ कुछ देर बैठकर अपने अषांत मन को शान्त करूँगी।
आओ उस ओर मेरा कक्ष है। अलाव जल रहा है। वहाँ चल कर बैठो। इस ठंड में यहाँ कहाँ बैठोगी।
इतना समय नहीं है। बस प्रसाद दे दीजिये। ग्रहण कर के जाना चाहती हूँ।
जैसी तुम्हारी मर्जी। प्रसाद तो ले लो पर प्रभु की इच्छा है कि इस ठंड में एक कप चाय अवश्य पी लो। चाय लाता हूँ। राखी इन्कार नहीं कर सकी। अपने दुपट्टे में प्रसाद ले लिया और सरमैय्या पण्ड़ित के आने का इन्तजार करने लगी।
होनी होकर टलती है। उसे टालने में मनुष्य का वश नहीं चलता। घर पर मोहन बेचैन था। हर पल उसे राखी के अनिष्ट का भय सता रहा था। अपने को कोस रहा था कि उसने राखी को अकेले क्यों जाने दिया। उसका विगत उसे भयभीत कर रहा था। आखिर उसका मन नहीं माना तो वह उठा और बाहर आकर मंदिर की ओर चल पड़ा।
जैसे-जैसे मोहन मंदिर के नजदीक पहुँच रहा था उसकी घबराहट बढ़ती जा रही थी। अपनी बेटी को देखने की इच्छा प्रबल होती जा रही थी। मंदिर के प्रांगण में पहुँच कर उसे राखी नहीं दिखाई दी उसका दिल डूबने लगा। तरह-तरह के बुरे ख्यालात् उसके दिलो-दिमाग में उमड़-घुमड़ मचाने लगे। दिल की धड़कन बढ़ने लगी। वह मुख्य अराधना कक्ष की ओर दौड़ने लगा।
बचाओ! बचाओ!
किसी लड़की की आवाज मंदिर में गूँजी। सोचने समझने की बुद्धि जाती रही और मोहन अपना सिर पकड़ जहाँ था वहीं बैठ गया। अनिष्ट भंयकर अनिष्ट। क्या यह उसकी बेटी की आवाज थी। वह हताशा और निराषा में एक भंयकर फैसला कर चुका था। तुरन्त उठा और सरमैय्या पण्ड़ित के कमरे की ओर दौड़ने लगा।
दो आदमी एक लड़की पर झुके थे। लड़की के कपड़े अस्त-व्यस्त थे। मोहन ने यह दृश्य देखा तो उसका रहा सहा सब्र भी जाता रहा। उसने मोहन दादा का रूप धारण कर उन पर झपटा।
सरमैय्या और पास्कल दोनों को खतरे का आभास लगा। वह दोनों पलटे। मोहन के हाथ में लपलपाता छुरा देखकर स्तम्भित रह गये। वह समझ न पाये कि अचानक मोहन कहाँ से आ गया। वह दोनों आतंकित और जड़ थे। मौत के भय ने उन दोनों की वाणी छीन ली थी।
मोहन का हाथ ऊपर उठा और खच-खच दोनों के पेट में छुरा पैवस्त हो गया। एक आवाज निकली और सब कुछ खतम। लहू का फौव्वारा छूटा। उसकी लकीर बह कर फर्श पर फैलने लगी।
अब मोहन नहीं था। वह फिर से एक बार मोहन दादा का रूप अख्तियार कर चुका है। उसकी अपराधिक बुद्धि जाग्रत थी। उसने झट राखी को अपनी बाँहों में उठाया और अँधेरे में खो गया।