स्वाध्याय से विचार शक्ति बढ़ती है
साधना को आगे बढ़ाने के लिए स्वाध्याय महत्वपूर्ण सोपान है। स्वाध्याय के समान कोई तप नहीं है, लेकिन अध्ययन के बाद उसकी गहराई में जाना भी आवश्यक है। स्वाध्याय का अर्थ लोग किताब पढ़ना समझते हैं। पुस्तक पढ़ना तो स्वाध्याय का आरम्भिक स्तर मात्र है। स्वयं का अध्ययन करना ही विशुद्ध रूप से स्वाध्याय है। जो व्यक्ति स्वयं का अध्ययन करता है तो उसे कई कमियाँ अपने अंदर दिखाई देती है। स्वयं के अध्ययन करने से क्या लाभ होता है? जो व्यक्ति स्वयं का अध््ययन करते हैं उन्हें स्वरूप की उपलब्धि होती है। आत्मा की सबसे बड़ी खुराक स्वाध्याय ही है। मनुष्य का जन्म लाखों योनियों में पीड़ा भोगने के बाद हुए किसी पुण्य के प्रताप से होता है। स्वाध्याय बहुत ही मूल्यवान है। सदग्रन्थ हमें सत्संग का लाभ प्रदान करते हैं। जहाँ लाभ है वहाँ ही लाभ का उल्टा 'भला' है। इसलिए स्वाध्याय का प्रारम्भ सदग्रन्थों के अध्ययन से ही करना चाहिए। ये सदग्रन्थ अपनी संगति से ही हमें निखार कर सोने से कुन्दन बना डालते हैं। हम सदग्रन्थों में यदि उच्च विचारों के महापुरुषों के जीवन चरित्र, उनके कार्य और व्यक्तित्व का अवलोकन करते हैं, उनके विचारों को जानते, समझते और अनुकरण में लाते हैं तो उनका प्रभाव धीरे-धीरे हमारे जीवन पर प्रकट होने लगता है। हममें आत्मावलोकन और अन्तरावलोकन का महान गुण विकसित होने लगता है। इसलिए तैतिरीय उपनिषद् के ऋषि ने कहा है दृ “स्वाध्यायान्मा प्रमदरू ...” अर्थात स्वाध्याय में आलस्य नहीं करना चाहिए। वर्तमान में प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञानवर्धक साहित्य अवश्य पढ़ना चाहिए। सद्ग्रन्थों से जीवन प्रकाशित होता है। स्वाध्याय से विचार शक्ति बढ़ती है। वैदिक साहित्य का पठन-पाठन मनुष्य के लिए नितान्त आवश्यक है। वेद सबसे प्राचीन है तथा इसकी शिक्षाएं मानवमात्र के लिए हैं, न कि किसी व्यक्ति विशेष के लिए। मनुष्य के मस्तिष्क पर वातावरण, स्थान, परिस्थिति और व्यक्तियों का निश्चित रुप से भारी प्रभाव पड़ता है। जो लोग अच्छाई की दिशा में अपनी उन्नति करना चाहते हैं उन्हें आवश्यक है कि वे अपने को अच्छे वातावरण में रखें, अच्छे लोगों को अपना मित्र बनावें, उन्हीं से अपना व्यापार, व्यवहार और सम्बन्ध रखें। जहाँ तक सम्भव हो परामर्श, उपदेश और मार्ग-प्रदर्शन भी उन्हीं से प्राप्त करें। एकान्त में स्वयं भी अच्छे विचारों का चिन्तन और मनन करके तथा अपने मस्तिष्क को उसी दिशा में लगाये रहने से भी आत्म-सत्संग होता है। अतः ये सभी प्रकार के सत्संग आत्मोन्नति के लिये परमावश्यक हैं।