होली की होलिका
बचपन के भी क्या दिन थे ज्यों-ज्यों होली का त्योहार नजदीक आता था, त्यों-त्यो दिल की धड़कन व उल्लास तेज होता जाता था। रंग खेलेंगे, गुझिया-पापड़, पकवान खायेगें, नये-नये कपड़े पहनेगे और दोस्तों से मिलकर अपने कपड़ों की तारीफ करवायेंगे। घूमेंगे-खेलेगे। दुनियादारी से कोई मतलब नहीं। किसी का कुछ भी हो या हो जाये कोई मतलब नही, अपने को तो कपड़े, पैसे और मटरगस्ती से मतलब था। वक्त गुजरता गया और अनचाहे ही हम छोटे से बड़े और विवाहित होकर पिता भी बन बैठे। जिम्मेदारियों का हाउस टैक्स सर पर आन पड़ा, खुदी कमाओ और सब कुछ देखो। इन्हीं सब कामों, बन्धनों, तीज-त्योहारों आदि में रगों का त्योहार होली भी अपना काम दिखा जाती है। ये एक ऐसा त्योहार है कि अक्सर बजट सत्र के लगभग करीब ही आता है। और जिससे हम मध्यम वर्गीय के रंग में भंग स्वाभाविक प्रक्रिया हे। पूरे घर के कपड़े, पकवान जोकि मिलावटी चीजों के सुपाच्य बनाये जाने की भरसक कोशिश रहती है। हफ्तों माँगों के हिसाब से खरीदारी। आलू ढो-ढो कर दिमाग भी चिप्स की तरह काम करने लगा है। झव्वा भर बनाना जो हे आखिर घर-उठाकर सालभर खाना व आव-भगतियों को खिलाना जो है। होते-करते इस बार भी होलिका देवी जी बजट के साथ प्रकट हो गयीं। जैसे रात के बारह बजे पेट्रोल-डीजल महराज नये दामों के साथ हाजिर हो जाते हैं। इस बार सोंचा कि होली मे कुछ कमाने में कटौती कर दें। पूरे परिवार से घोर मंत्रणा हुई। आखिर तय हुआ कि जरूरत की चीजों की ही बाजारी होगी। अपनी-अपनी लिस्टें लाने को कहा गया। हफ्ते भर पहले लिस्ट देने को कहा गया। बड़े बेटे ने कपड़े, जूते, पिचकारी-स्टैण्डर्ड वाली, रंग, गुब्बारे, टोपी, गुलाल स्प्रे और जेब खर्च उम्र के हिसाब की लिस्ट दी। बेटी ने भी कुछ कमोवेश लिस्ट पेश की। छोटे बेटे ने सिर्फ पिचकारी व रंग की ही फरमाइश की करता भी क्या ज्यादा जानकारी ही नही है क्योंकि वह अभी बहुत छोटा है, तो उसकी मांगों को लेकर उसकी माँ बतौर शुभचिन्तक हेल्पर के रूप में वक्तव्य दिया अगर वह छोटा है तो हम उसकी जरूरतों, भावनाओं को समझे आखिर हम तो बड़े और समझदार है, और माँ-बाप भी! घड़ो पानी आन पड़ा! अन्ततः गृहलक्ष्मी ने अपनी भीमकाय लिस्ट हाजिर कर दी और कहा पढ़ लीजिये जो मेरी जानकारी में था वह लिख दिया है, कुछ छूटा हो तो तुम लिख लेना नहीं तो दुकान वाला सब जानता है। हाँ मेरे कपड़े, चप्पल, चूड़ी वगैरह नहीं लिखें है। जिसे मैं ही खरीद पाऊँगी पैसे दे देना। दो-तीन हजार में हो जायेगा। लिस्ट देखकर मेरी हालत पहली बार समुद्री किनारा देखने जैसी थी कि इसका कोई छोर ही नहीं है। चारों लिस्टों को इकठ्ठा कर मिलान किया और खरीदारी शुरू की तो कोई ऐसी दुकान नहीं बची जिस पर मेरे नाम का खाता न खुल गया हो। ऊपर से मँहगाई व बजट तत्पश्चात मँहगाई का बजट, सीमित आय, सालभर के त्योहार की दुहाई सबकी माँगों को पूरा करने की जिम्मेदारी। पूरे घर की सफाई, धुलाई, सब व्यवस्थित करना, परदे-चादरें, लिहाफ बदलना । आखिरकर पार्क के कोने में बेंच पर बैठकर ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करने लगा कि इतना सब कुछ होने के बाद भी मुझे अपने जिन्दा रहने की हिम्मत दी है। यह कोई कम मामूली बात नहीं है। मेरी तरह पार्क में अनेक बेंचो पर काफी लोग बैठे थे लेकिन कोई किसी से बात नही कर रहा था। शायद सब एक ही प्रकार के चोटहिल थे। शाम तक बैठकर घर आ गया। जो ला सका ले आया। जो घर मे सुनना था सुन लिया और जो मिल गया सो खा लिया। फिर गुझिया-पापड़ वगैरह बनने लगे आखिर सुबह होली खेलने का दिन जो था।
होली का दिन था सुबह से ही चहल-पहल हो गयी, मगर मेरे बचपन जैसी नहीं थी। लोग सुबह से ही पीने लगे, सड़कों पर लाल कम हरा व काला रंग ज्यादा इस्तेमाल हो रहा था। लोगों को जबरन रोंक-रोंकर मुँह-गालों की पुताई हो रही थी। कोई अगर गाड़ी से है और नहीं रोक रहा है, तो दौड़ाकर गाड़ी से खींचकर गिराकर पुताई हो रही थी, भले ही उसका हाथ-पाँव टूटे या गाड़ी, परवाह नहीं क्योंकि होली है। इसी बहाने कुछ ने जेबें भी तलाश ली, पुलिस वाले भी वर्दी मे थोड़ा-बहुत लेकर व पीकर काम चला रहे थे। जिसके पास देखो बोतले भी कुछ की जेब में किसी के हाथ में। छोटे बच्चे घर व दरवाजे पर एक-दूसरे पर व इधर-उधर दीवाले छिप्पकर होली मनाने की कोशिश कर रहे थे। मैं टीवी पर व पत्नी किचन में होली मना रही थी। कुछ ने मोबाइल पे होली की शुभकामनायें देकर अपनी होली का शगुन पूरा किया। तो दो-एक मुहल्ले के घर भी आ धमके। भला हो सुगृहणी को जिसने कह दिया कि वह तो सुबह ही चले गये थे, होली खेलने। नहीं तो हम भी बंदरों की तरह शीशा में देखकर मुँह पर एक बट्टी सबुन रगड़ रहे होते। आखिर फालतू खर्च की साबुन व तेल बचा। जब रंग चला घर में कैद रहे फिर जल्द ही नहा लिया। फिर बच्चों ने नहाया। श्रीमतीजी तो सुबह ही नहा चुकी थी। शगुन अनुसार एक-दूसरे को गुलाल का टीका भर लगा दिया था ताकि वैसे ही हालत खराब है माँग-जाँचकर उधारी मे काम चला रहे हे कहीं होलिका देवी नाराज हो गयी तो परमानेन्ट पार्क में ही बैठे रहेंगे। काम-धाम वैसे ही सब सरकार की नई नीतियों द्वारा खतम होने की कगार पर है। हमारी हड्डियों का चूरमा बनाकर नये-नये टैक्स मँहगाई, मिलावट द्वारा जीना दूभर कर दिया है।
होली मिलन प्रारम्भ हो गया, कुछ लोग जबरदस्ती गले मिल रहे थे। कुछ की तो इच्छा ही नहीं थी, मगर कुछ तो उत्साहित थे पता नही किस स्वार्थ के कारण या अभी उतरी नहीं थी। मोहल्ले वाले पड़ोसी पन निभाने के कारण गले मिल रहे थे। विजनेस वाले अपना व्यवसाय बढाने के लिये मिल रहे थे। बच्चे बड़ों को देख-देखकर कुछ सीखने के लिये गले मिल रहे थे। शाम को मुहल्ले के बड़े नेताजी के यहाँ सब जल-पान था। नेताजी बैठे-बैठे ही हाथ उठाकर गले मिलना कन्फर्म कर दिया। लच्छेदार भाषणों को सुनकर सब गद-गद हो गये। और वोट देने की हलफ उठा ली। नेताजी ने चलते समय खड़े होकर स्वार्थी अभिवादन प्रकट किया। धीरे-धीरे सभी अपने-अपने घरों में पहुँच जिसे जो खाना या जो बना था उसी में से खाकर सो गये। बच्चे भी दीन-दुनिया से बेखबर सुन्दर नींद ले रहे थे। पत्नी बरतन माँझ रही थी। और मैं दूसरे दिनों के अपने काम को देनदारी और उधारी के बारे में सोंच रहा था। मैं व पत्नी कपड़े नहीं बनवा सके थे। बच्चों की खुशी से ही काम चल गया था। दूसरे दिन भी यूँ ही होली मिलन होता रहा। बेवजह मैसेज व शुभकामनायें बँटती रही। सरकार ने भी टी.वी. पे बधाई दी और कहाकि मँहगाई और बढ़ सकती है, तैयार रहे। होली जाते-जाते सरकार तोहफा दे गयी। हम सभी होली के खर्च के सदमें से उबरे भी न थे। सरकारी तोहफे से किंकर्तव्यमिूढ़ हो गये। यह हमारा नहीं आपके परिवार का भी मामला है। गम्भीरता से लीजिये। और अगली होली का इन्तजार कीजिये। सभी काी होली मंगलमय हो।