ईश्वर के बनाए पुतले भगवान हो गए हैं

शाश्वत सांस्कृतिक साहित्यिक एवं सामाजिक संस्था द्वारा आयोजित पुस्तक समीक्षा मे नाटक ‘एक अजीब दास्तां नाट्य लेखन श्री अख्तर अली रायपुर छत्तीसगढ़ की नाटक परिचर्चा संपन्न हुई। वरिष्ठ रंगकर्मी सुषमा शर्मा कहती है एक अजीब दास्तां श्री अख्तर अली द्वारा लिखित एक वैचारिक नाटक है इस नाटक में तीन पात्र हैं वकील आरोपी और जज वास्तव में आरोपी हम सब हैं जिनके मन में समय-समय पर बाहरी दुनिया में घटने वाली अनेक घटनाएं हमारे विश्वास को हिला देती हैं और हम यह सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि क्या ईश्वर कहीं नहीं है और अगर वह है तो उसका रक्षा यह संसार ऐसा क्यों है असल में हम सब अपने द्वारा किए हुए कर्मों को ईश्वर पर थोप देते हैं और उससे कर्म फल को ईश्वर का न्याय समझकर व्यतीत हो जाते हैं आगे चलकर नाटक कार्य स्पष्ट करता है कि सब धर्मों से ऊपर इंसानियत का धर्म है और मुस्कुराता हुआ इंसान ही सच्चा इंसान है बाकी सब हमारे द्वारा ही रचा हुआ पाखंड है इस नाटक का मंचन विधान सादा है और नाटकीय तामझाम से दूर है इससे ना केवल मंचित किया जा सकता है बल्कि फिल्माया भी जा सकता है अंत में नाटककार नाटकीय विधान के साथ दर्शकों पर फैसला छोड़ देता है।


रविनन्दन सिंह का कहना है, एक अजीब दास्ताँ एक गूढ़ एवं तात्विक नाटक है। इसे नाटक नहीं बल्कि एकांकी या नाटिका कहना उपयुक्त होगा। इसमें अत्यंत बौद्धिक, वैचारिक और व्यंग्यात्मक तरीके से धर्म के बारीक एवं सूक्ष्म पहलूओं को उजागर किया गया है। यह नाटिका सोचने पर मजबूर करती है तथा अनेक प्रश्न खड़ी करती है, मसलन धर्म का स्वरूप क्या है, ईश्वर का स्वरूप क्या है, आस्तिकता क्या है, नास्तिकता क्या है आदि। इस एक अंक के नाटक में कुछ वाक्य सूक्तियों की तरह आते हैं, जैसे, राजनैतिक पार्टी ईश्वर की हत्या नहीं करेगी, बल्कि ईश्वर को बचाकर रखेगी और चुनाव के समय उसे अपना स्टार प्रचारक बनाएगी..पूँजीपति के हाथ गर ईश्वर लग गया तो वह उसे मारकर नष्ट नहीं करेगा, बल्कि शोषण करने के लिए जीवित रखेगा..नकली धर्म के असली ठेकेदारों ने अपने अपने ईश्वर निर्मित कर लिए हैं। समूचा धर्म दलालों की चपेट में आ गया है...कुछ चालाक लोगों ने धर्म का कारोबार शुरू कर दिया है, आश्रम इनकी दुकान है..इतने मंदिर, इतनी मस्जिद, इतने गुरुद्वारे, इतने गिरिजाघर, यहाँ के कर्ताधर्ताओं ने अपने अपने ईश्वर बना लिए हैं। पृथ्वी पर इनके ईश्वर इतने ज्यादा हो गए हैं कि आदमी-आदमी से मिल नहीं पा रहा है। जब भी आदमी-आदमी से मिलना चाहता है, बीच में ईश्वर आ जाता है, बीच में एक धर्म आ जाता है। इस नाटिका संवाद योजना बहुत सुंदर और धारदार है। लेखकीय सिद्धि के लिए नाटककार अख्तर अली मुबारकबाद के पात्र हैं।
कुल मिलाकर यह नाटिका आँख पर पड़े अंधभक्ति एवंअंधी आस्था के परदे को बखूबी हटाने काकाम करती है और यह संदेश देती है कि ईश्वर की तलाश मत करो ईश्वरत्व की तलाश करो। ईश्वरत्व ही मानवता को समृद्ध कर सकता है, ईश्वर नहीं।
अजीब दास्ताँ वाकई एक अजीब दास्ताँ है. अख्तर भाई ने बड़े हल्के फुल्के ढंग से एक गूढ़ विषय को शब्दों के जादू में बाँधा है, और मात्र तीन पात्र होने के कारण इसे मंचित करना भी मुश्किल नहीं होगा. कॉमिक रिलीफ के लिए जज साहब हैं. अगर कोई कहे कि ये कोर्ट की अवमानना है, तो एक रुपया खर्च कर के मामला सुलटाया जा सकता है। हाँ, नाटक पढ़ते वक्त कुछ ऐसा लगा कि अख्तर भाई हिंदू विरोधी हो गये हैं, पर बाद में ईश्वर के साथ खुदा और गाड को देखकर भ्रम दूर हुआ और मालूम हुआ कि ये सारा कुछ धर्म के ठीकेदारों के बारे में बयाँ किया गया। 
वैसे वामपंथी सोच वालों को इस नाटक का मंचन ज्यादा अच्छा लगेगा,-अभिलाष नारायण
गोविंद सिंह यादव कहते है एक अजीब दास्तां जो नाटक अख्तर अली द्वारा लिखा गया है ये नाटक नीत्शे वा ओशो की बात तो कहता हैं कि नीत्शे ने कहा कि ईश्वर मार गया तो ओशो ने उसका खंधन करता कि ईश्वर को कोई नहीं मत सकता है लेकिन इस नाटक में बार-बार एक बात को दोहराया जाता है जो काफी समय परेशान करता हैं कि एक बात बार बार क्यों दोहराई जा रही है इस नाटक की लेखन शैली बहुत अच्छी है लेकिन एक ही धर्म समुदाय के बारे में बात करता है ये सारे धर्म की बात नहीं करता है ये नाटक समसामयिक हैं ये आज के समय की बात करता है मानवता की बात करता है लोगों को लोगों से जोड़ने की बात करता है लेकिन लेखक के देखने का नजरिया एक पक्षीय है। इस लिए ये नाटक सार्वभौमिक नहीं हो पाता है ये एक समुदाय में फसकर रहा जाता है ये नाटक जहां से शुरू होता हैं वहीं जा के पास जाता है जैसे अधर्म के विरोध करता वही धर्म को स्वीकार करता है तो इस नाटक में अपने आप में लिखने में मतभेद दिखता है, लेकिन  इन सब बातों के बाद भी ये नाटक अंत मैंने मानवता कि बात करके सारी बात को खारिज कर देता है और सारी बात दर्शक के ऊपर छोड़ देता है कि जो लोग  नाटक देखने आए वो खुद निर्णय ले की उसको इस नाटक से क्या बात लेकर घर जाना है।
ऋतंधरा मिश्रा रंगकर्मी कहती है एक अजीब दास्तां श्री अख्तर अली द्वारा लिखित नाटक पढ़ते समय एक वैचारिक नाटक लगा नाटक में 3 पात्र वकील आरोपी और जज आरोपी द्वारा ईश्वर की हत्या पढ़ते वक्त तो प्रतीत होता है कि ईश्वर की हत्या की बात कही जा रही है किंतु अख्तर अली ने बड़े ही खूबसूरत लफ्जों में अच्छा व्यंग प्रस्तुत किया है और धर्म के ठेकेदारों को अपने व्यंगात्मक शब्दों मे पिरो कर करारा प्रहार किया है आरोपी का संवाद देखें निर्दोष धरे जा रहे हैं, अपराधी सम्मानित हो रहे हैं, झूठ को पुरस्कृत किया जा रहा है, इंसान जानवर से ज्यादा गया गुजरा बना दिया गया है, ईश्वर के बनाए पुतले भगवान हो गए हैं, और वह भगवान होकर पुतले के जैसा खड़ा है जो समाज में आज भी हो रहा है मानवता के बिगड़े रूप को बहुत ही सलीके से संवाद के जरिए कहने की कोशिश की है नाटक में सेट एक अदालत का कॉन्सेप्ट है और अंत मे फैसला दर्शकों के बीच जज रूपी दर्शक निर्णय ले संवाद की अदायगी ही नाटक का मूल तत्व है। श्री अख्तर अली को नाट्य लेखन के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।
शाश्वत रंग संवाद द्वारा आयोजित यह नाटय पठन और प्रतिक्रिया की जो यह श्रृंखला आरंभ की गई है यह अदभुद कनसेप्ट है, इसमें नाटकार को यह मालूम पड़ता है कि जिन बातो को ध्यान में रखकर नाटक की रचना की गई है वह बात स्पष्ट है या नही द्य कथ्य के अतिरिक्त नाटककार मंच के तौर तरीके और अभिनय को भी कथ्य में समाता हुआ चलता है वह बात भी नाटक पढ़ते समय स्पष्ट होनी चाहिये सभी का आभार। अखतर अली 


 


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