एकतरफा महिला कानून
एक तरफ विवाहित बेटियों को भी पैतृक सम्पत्ति में बेटों के बराबर हक। दूसरी तरफ मृतक आश्रित के रूप में बेटों को छोड़कर सिर्फ अविवाहित बेटियों को पिता की पेंशन में दिया जाता है हक, बेटे सिर्फ मारते रह जाते हैं झक! ऐसा बेटों के साथ भेदभाव क्यों? एक तरफ बेटा-बेटी की समानता की बातें बड़ी धड़ल्ले से होती हैं तो दूसरी तरफ समानता कब और कहाँ चली जाती है जब एकतरफा बेटी को मृतक आश्रित के रूप में पिता की पेंशन का हकदार माना जाता है। क्या ये बेटों के साथ भेदभावपूर्ण रवैया नहीं है? अगर इसी तरह बेटा-बेटी व स्त्री-पुरूष के नाम पर राजनीति करके कानून बनाये जाते रहेंगे तो इस समाज का बेड़ा बहुत जल्द ही गर्क हो जायेगा। बेटी को सिर्फ मृतक आश्रित के रूप में पिता की पेंशन का हकदार ही नहीं बल्कि तलाकशुदा बेटी या विधवा बेटी को भी पिता की संपत्ति में कानूनन हकदार माना जाता है। भले ही बेटी पढ़ी-लिखी अपने पैरों पर खड़ी होने लायक हो। बेटों को तो सरकारी नीति व कानूनन 18 वर्ष की आयु पूरी करते ही पूर्णरूप से सक्षम मान लिया जाता है भले ही उसे अपनी पढ़ाई छोड़कर होटल पर बर्तन धुलने पड़ते हों। उन्हें किसी तरह का अनुदान क्यों नहीं दिया जाता है? बेटियों को ससुराल में न रहने पर भी पति से गुजारा भत्ता व मायके में रहने पर उसे पिता की सम्पत्ति पर हक दिया जाता है। वाह भाई वाह! आम के आम गुठलियों के दाम।
एकतरफा महिला कानून व विचार व्यक्त करके समाज का कीमा निकालने के लिए उन महापुरूषों को ‘अनाड़ी’ तहेदिल से शुक्रिया अदा करते हैं कि जो ये वाक्य कहते हुए समाज के प्रति एकतरफा नजरिया रखते हैं कि, ‘‘बेटा तभी तक बेटा रहता है, जब तक उसकी शादी नहीं हो जाती, पर बेटी पूरी जिंदगी प्यारी बेटी रहती है।’’ दण्डवत प्रणाम करते हैं ऐसे एकतरफा नजरिया रखने वाले महापुरूषों का, शायद दूसरा पक्ष उन्हें देखने की फुर्सत न मिलती हो। लेकिन बेटियाँ क्या-क्या गुल खिलाती हैं एक अनाड़ी कवि ही बता सकता है जो बेटा-बेटी की राजनीति के भ्रमजाल में न पड़कर भारतीय समाज को समूल नष्ट होने से बचाने का भरसक प्रयास कर रहा है। सच है बेटियाँ अपने माँ-बाप की जिन्दगी भर प्यारी बेटियाँ ही रहती हैं लेकिन ये दायरा सिर्फ मायके तक ही सीमित क्यों? ससुराल में जाते ही ससुराल वाले माँ-बाप को अपना जानी-दुश्मन समझती हैं, इस कड़ुवे सच को जानने की किसी में हिम्मत नहीं है। हाँ बेटों को हमेशा नकारा व आवारा समझा जाता है लेकिन ये दौर शादी के बाद ही क्यों शुरू होता है? इसके बारे में किसी ने सोचा है। सोचा तो है पर सच्चाई स्वीकार करना किसी के बस की बात नहीं। हाँ, जो बेटे श्रवण कुमार की भूमिका निभाते हैं वह कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने के साथ-साथ जेल की हवा भी खाते हैं तथा दुनिया से कूच कर जाते हैं तथा जो शादी के बाद पत्नी रूपी किसी दूसरे परिवार से आयी बेटी की हाँ में हाँ मिलाते हैं उन्हें समाज व समाज के बड़े-बड़े महापुरूष नकारा व आवारा की संज्ञा से नवाजते हैं। बेटियों के दूसरे नकारात्मक पहलू को जो शादी के पहले भी होता है उस सच को कहने की किसी में हिम्मत नहीं या सच्चाई जानने से भी परहेज करते हैं। जो अविवाहित प्यारी-प्यारी बेटियाँ अपने माँ-बाप की नाक में दम ही नहीं करतीं बल्कि मौका पड़ने पर अपने माँ-बाप व भाई को पृथ्वीलोक से स्वर्गलोक भेजने में भी नहीं हिचकती उनकी चर्चा न करकेे किताब का पन्ना पलट दिया जाता है।
मेरी कोई बेटियों व महिलाओं से वैमनस्यता नहीं बल्कि एक कवि/लेखक व विचारक होने के नाते समाज में चल रहे एकतरफा नजरिये में बदलाव लाने का छोटा-सा प्रयास है क्योंकि समाज सिर्फ बेटा-बेटी व स्त्री-पुरूष के नाम पर राजनीति की चादर लपेटकर नहीं चलने वाला। समाज बेटा-बेटी व स्त्री-परूष के रूप में साइकिल के दो पहियों पर टिका है किसी एक के निकल जाने से नहीं चलता। आज उन माताओं, बहनों व बेटियों से पूछने पर हकीकत पता चल जायेगी जिन्होेंने इन एकतरफा महिला कानून व राजनीति के चलते अपने बेटे, भाई व पति खोयें हैं तथा जेल की हवा खाई है। सिर्फ बेटी व स्त्री के कंधे पर बन्दूक रखकर राजनीति करके व कानून बनाकर कोई समाज व राष्ट्र प्रगति के मार्ग पर आगे नहीं जा सकता। जहाँ लोग एकतरफा महिला कानून की आड़ में अपनों से ही उलझकर जिन्दगी और मौत से जूझते हों। अनाड़ी तो यही कहेंगे कि, अब भारत में बेटों का जन्म लेना एक अभिशाॅप बनता जा रहा है।
नजरिया