देश में समान नागरिक संहिता कितनी प्रासंगिक

- रेखा त्रिगुणायत

समान नागरिक संहिता का जिक्र भारतीय संविधान में उल्लिखित है। राजनीतिक तौर पर समान नागरिक संहिता का मुद्दा आर.एस.एस. ‘संघ’ के अहम मुद्दों में शामिल रहा है। यह अलग बात है कि इस मुद्दे पर उन्हें पर्याप्त जनमत का समर्थन नहीं मिला अथवा उन्होंने शिद्दत से जन-समर्थन जुटाने की कोशिशें ही नहीं कीं। सवाल हिंदू व मुसलमान के धार्मिक आजादी का नहीं है। बल्कि बुनियादी सरोकार यह है कि एक संप्रभु राष्ट्र में, एक ही समान कानून की व्यवस्था क्यों नहीं है? अलग-अलग धर्मों, जातियों, संप्रदायों से लेकर कबीलों तक अपने-अपने नियम-कानून हैं। क्या यही भारत की अनेकता में एकता की संवैधानिक स्थिति है? आधुनिक भारतीय समाज एकरूप होता जा रहा है। धर्म, जाति और समुदाय के पारंपरिक अवरोध समाप्त हो रहे हैं। समाज में तेजी से हो रहे बदलाव की वजह से अंतरधार्मिक और अंतरजातीय विवाह या तलाक में परेशानियां हो रही हैं। युवा पीढ़ी को इन दिक्कतों का सामना न करना पड़े, लिहाजा समान नागरिक संहिता का होना जरूरी है। समान नागरिक संहिता लागू करने का यह सबसे माकूल वक्त है। धार्मिक आजादी के लबादे में वे ही विरोध कर रहे हैं, जो कानूनन चार पत्नियां रख सकते हैं। यदि एक देश और एक ही राशन कार्ड और चुनाव के विमर्श चल सकते हैं और वह कानूनी व्यवस्था भी बन सकती है, तो सभी नागरिकों, धार्मिक-मजहबी समुदायों के लिए एक ही कानून लागू क्यों नहीं किया जा सकता?

सवाल यह भी है कि आखिरकार समान नागरिक संहिता की जरूरत क्या है। विषय विशेषज्ञों की राय में अलग-अलग धर्मों के अलग कानून से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है। समान नागरिक संहिता लागू होने से इस परेशानी से निजात मिलेगी और अदालतों में वर्षों से लंबित पड़े मामलों के फैसले जल्द होंगे। शादी, तलाक, गोद लेना और जायदाद के बंटवारे में सबके लिए एक जैसा कानून होगा फिर चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो। वर्तमान में हर धर्म के लोग इन मामलों का निबटारा अपने पर्सनल लाॅ यानी निजी कानूनों के तहत करते हैं। समान नागरिक संहिता की अवधारणा है कि इससे सभी के लिए कानून में एक समानता से राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी। देश में हर भारतीय पर एक समान कानून लागू होने से देश की राजनीति में भी सुधार की उम्मीद है। समान संहिता विवाह, विरासत और उत्तराधिकार समेत विभिन्न मुद्दों से संबंधित जटिल कानूनों को सरल बनायगी। परिणामस्वरूप समान नागरिक कानून सभी नागरिकों पर लागू होंगे।

यदि समान नागरिक संहिता को लागू किया जाता है तो वर्तमान में मौजूद सभी व्यक्तिगत कानून समाप्त हो जायंगे, जिससे उन कानूनों में मौजूद लैंगिक पक्षपात की समस्या से भी निबटा जा सकेगा। समान नागरिक संहिता का उद्देश्य महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों सहित संवेदनशील वर्गों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना है, जबकि एकरूपता से देश में राष्ट्रवादी भावना को भी बल मिलेगा। वहीं भारतीय संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द सन्निहित है और एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य को धार्मिक प्रथाओं के आधार पर विभेदित नियमों के बजाय सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून बनाना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि देश का संचालन संविधान से ही होगा। तीन तलाक के खिलाफ भी संसद ने बिल पारित कर कानून बनाया है। एक सड़ी-गली परंपरा खत्म हुई है और औरत का शोषण भी लगभग समाप्त हो रहा है। क्योंकि तीन तलाक कहने वाला अब अपराधी होगा। फिलहाल यह सांस्कृतिक और संवैधानिक बदलाव कोई न्यायाधीश तो कर नहीं सकता, वह सुझाव के जरिये आग्रह कर सकता है, कानून या संवैधानिक संशोधन तो संसद को करना है। अब इस विषय पर राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श करके एक साझा निर्णायक निष्कर्ष तक पहुंचना ही चाहिए। उत्तराखंड इसी माह नवंबर में समान नागरिक संहिता लागू करने वाला देश का पहला राज्य बन जाएगा। क्या देश के अन्य राज्य इसका अनुसरण करेंगे? यह तो आने वाला समय ही बताएगा। 



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