सादा जीवन उच्च विचार की सोच से कोसों दूर होती राजनीति

- रेखा त्रिगुणायत

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अधिकांश नेता देश सेवा एवं देश भक्ति की भावना से लबरेज रहे। किंतु कुछ चोटी के नेताओं ने अपनी धमक एवं धन-बल के चलते उन्हें अपने इरादों में कामयाब नहीं होने दिया। फलस्वरूप लोकतंत्र एक पार्टी एवं एक परिवार की विरासत बनकर रह गया। यह भी नहीं कहा जा सकता कि उनके कार्यकाल में विकास कार्य नहीं हुए लेकिन वह विकास सत्ताधीशों की विचारधारा के अनुरूप ही हुए। आम जनता की भावना से उन्हें कुछ भी लेना-देना न था। जिन्होंने सत्ता के लोभ में देश का बंटवारा तक स्वीकार कर लिया उनके इसकी उम्मीद भी कैसे की जा सकती थी। उन्होंने सत्ता कायम रखने के लिए अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति को बदस्तूर जारी रखा। सुख की लालसा हर इंसान में स्वाभाविक रूप से निहित रही है चाहे वह शारीरिक हो, मानसिक अथवा सत्ता का सुख हो। फलस्वरूप राजनेताओं के मुंह में सत्ता का खून लग गया जो निरंतर विस्तार पाता जा रहा है। वह राजसी जीवन जीने के आदी हो चुके हैं। सादा जीवन उच्च विचार एवं त्याग तपस्या के भाव पूर्णतः तिरोहित हो चुके हैं। राजशाही की मानसिकता के चलते ही कुर्सी के लिए झूठ-फरेब, मार-काट व द्वेष दिनोंदिन परवान चढ़ रहे हैं। देश और प्रदेश की तो बात ही छोड़ दें गांवों में होने वाले पंचायत चुनावों में भी लूटपाट, अपहरण एवं हत्याओं का दौर चल पड़ा है। बाहुबल, गबन एवं भ्रष्टाचार गांवों की नियति बन चुके हैं। खेतिहर किसान भी राजनीति की तुलना में कृषि कार्य को तुच्छ मानने लगा है। आपसी रंजिश, जातिवाद, असुरक्षा एवं बेरोजगारी से त्रस्त गांव का युवा शहरों की ओर पलायन करने लगा है जिससे देश एवं प्रदेश को दोहरा नुकसान हो रहा है। पहला यह कि गांव की खेती अशक्त एवं वृद्धजनों के मत्थे आ पड़ी है, जिससे बहुतेरे खेत-खलिहान अव्यवस्था एवं उचित देख-रेखके अभाव में नष्ट होते जा रहे हैं। दूसरी तरफ शहरी गरीबों की नौकरी एवं व्यवसाय पर ग्रामीण युवाओं का आधिपत्य बढ़ने लगा है। क्योंकि अधिकांश अपने खेतों को बेचकर धन को व्यापार में लगा रहे हैं। क्योंकि वर्तमान दौर में धन का महत्व ज्ञान से अधिक हो चुका है। फलस्वरूप ज्ञान एवं शिक्षा के क्षेत्र में भी भारी गिरावट आने लगी है। किसी भी स्रोत से धन प्राप्त कर लेना आमजनों की मानसिकता बन चुकी है। आज की शिक्षा प्रणाली से नैतिकता एवं ईमानदारी के अध्याय हटाकर अर्थोपार्जन के गुर सिखाए जा रहे हैं। यह भी सत्य है कि वर्तमान दौर में अर्थ की महत्ता बढ़ी है। किंतु अर्थ अज्ञानियों एवं संवेदना से हीन व्यक्तियों को प्राप्त होता है तो उसके दुष्परिणाम भी समाज को झेलने पड़ते हैं। कटु सत्य यह भी है कि राजनेताओं की मानसिकता के चलते ही शिक्षा का ह्रास हो रहा है।

लेकिन, मूल्यों के गिरावट के इस दौर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अपनी राष्ट्रभक्ति एवं देश प्रेम के चलते राजनीति में दखल देना शुरू कर दिया है। जबकि उसका उद्देश्य राजनीति करना नहीं है। किंतु देश की दुर्दशा से द्रवित होकर उसने अपने चहेतों एवं अनुयाइयों को राजनीति में प्रवेश दिला दिया है। क्योंकि सत्ता में पकड़ के अभाव में तो भ्रष्टाचार पर काबू पाया जा सकता है, न ही हालातों में बदलाया लाया जा सकता है। देश के प्रति समर्पित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ही देन हैं। जो असंभव को संभव करने के प्रयास में लगे हैं। चूंकि शीर्ष नेतृत्व में संघ की मानसिकता से प्रेरित लोगों का वर्चस्व है। अतः उसमें भ्रष्टाचार नगण्य है। लेकिन कई छुटभैया नेता, सरकारी कर्मचारी एवं प्रशासनिक अधिकारियों के भ्रष्टाचार में लिप्त होने के अनेकों मामले सामने आ रहे हैं। जिन पर लगाम लगती प्रतीत नहीं हो रही है। यद्यपि नोटबंदी जैसा कड़ा एवं अप्रिय कदम उठाकर उन्होंने देश के लुटेरों एवं आतंकवादियों की कमर किसी हद तक तोड़ दी है। लेकिन कड़े कानूनों तथा उनके अनुपालन के अभाव में उनकी योजनाओं में निरंतर सेंध लग रही है। माना कि सहायता राशि लाभार्थियों के खाते में सीधे ट्रांसफर करने से बिचैलियों का वर्चस्व खत्म हो चुका है, लेकिन लाभार्थी की चयन प्रक्रिया में ही वे अच्छी खासी धन उगाही कर ले रहे हैं। बीपीएल कार्ड की बात करें तो पेट्रोल एवं डीजल गाड़ी धारकों के भी बीपीएल कार्ड धड़ल्ले से बनाए गए हैं। आयुष्मान योजना में भी अपात्रों को गोल्डेन कार्ड देने एवं फर्जी बिलों पर भुगतान लेने के किस्से आम हो चुके हैं। सत्ताधीशों एवं शासन एवं प्रशासन से अपराधियों की सांठ-गांठ आज भी नासूर बनी हुई है। न्यायालयों के फैसले भी सशक्त पैरवी करनेवालों एवं बेतहाशा धन खर्च करने वालों के पक्ष में होना भी अत्यंत पीड़ादायी है। रसूख एवं धनबल के चलते जो अपराधी बाइज्जत बरी हो जाते हैं। उनके विरोधियों एवं गवाहों की दुर्दशा तो होती ही है। वे संसद एवं विधानसभा के चुनावों में भी दहशत के बल पर जीत हासिल कर लेते हैं। इस प्रवृत्ति के लोग सत्ता के गलियारे तक आसानी से पहुंच जाते हैं। जिन प्रशासनिक अधिकारियों ने जान पर खेलकर इन्हें पकड़वाया था एवं जेलों में ठूंसकर यातनाएं दी थी, ताकि यह दुबारा अपराध करने का साहस न कर सकें। वह ही इनकी सुरक्षा में लगा दिए जाते हैं। उनकी कर्तव्यनिष्ठा आत्मसम्मान एवं साहस को कितनी गहरी चोट पहुंचती होगी इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। आज धन की हवस के चलते घृणित से घृणित अपराधी का भी बचाव करने में अधिवक्तागणों को तनिक भी हिचक नहीं होती। वे पेशे का हवाला देते हुए वे डंके की चोट पर उसका केस लड़कर उसे बचा लेते हैं। आंकड़े बताते हैं कि लगभग 40 से 50 प्रतिशत सांसदों एवं विधायकों के ऊपर अनेक आपराधिक मुकदमें चल रहे हैं। परंतु वह बड़ी ही शान से यह कहने में तनिक भी नहीं हिचकते कि राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के चलते ही उनपर यह मुकदमे लादे गये हैं। बाहुबली स्वयं को ही पुलिस बताते हुए यह घोषणा करते रहते हैं कि हम तो कमजोरों एवं पीड़ितों  के मददगार हैं। जिस देश और प्रदेश की सत्ता ऐसे माननीयों के हाथों में होगी वहां न तो लोकतंत्र  का कोई अर्थ है, न ही संविधान के पालन की उम्मीद की जा सकती है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सभी को आर्थिक एवं सामाजिक समानता की बात कही गयी है। लेकिन वर्तमान में दोनों ही मुद्दे संविधान के पन्नों तक ही सिमटकर रह गये हैं। राजनेता जातिवादी एवं दलित राजनीति को हथियार बनाकर आम जनता में फूट एवं आक्रोश का सृजन करते हुए अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। सामान्य परिस्थितियों में दलित उत्पीड़न के मुद्दे भले ही महत्वहीन माने जाते हों। लेकिन चुनाव नजदीक आते ही वह जोर पकड़ने लगते हैं। चुनाव जीतने के लिए विरोधी एवं सत्ताधीश दोनों ही डंके की चोट पर जातीय समीकरण साधने में लग जाते हैं। खुले आम जातीय गणना एवं आंकड़ों का दौर प्रारंभ हो जाता है। राजनेता संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए शहरों, गांवों एवं कस्बों तक में जातीय वोटों की गिनती एवं उन वोटों को साधन के प्रयास में लग जाते हैं। सत्ताधीश सुविधाओं का पिटारा खोलने में तनिक भी नहीं हिचकते।

भोली-भाती जनता इस सोच में संभवतः दूर ही रहती है कि आखिर कुर्सी के लिए इतनी मारामारी क्यों है। आम जनता को इतना तो पता है कि लोकतंत्र में किसी न किसी को तो सत्ता की बागडोर संभालनी ही है। साथ ही वर्तमान परिवेश में सभी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। अतः देश एवं प्रदेश की चिंता छोड़कर वह अपने भविष्य की चिंता करते हुए बिरादरी एवं रिश्तेदारी को ध्यान में रखकर उसे ही वोट देते हैं जो भले ही देश को लूट ले किंतु उन्हें अभय प्रदान करे। चुनाव आयोग लाख नियम बना ले। प्रशासन लाख उपाय कर ले किन्तु इस प्रवृत्ति को तभी समाप्त किया जा सकता है जब ईमानदार और समाजसेवी सत्ता के गलियारे तक पहुंच सके।





 

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