लोक नृत्य का स्वरूप व ताल
‘‘भारतीय लोकनृत्यों के अनेक स्वरूप और ताल हैं। इनमें अध्यात्म धर्म, व्यवसाय और समूह के आधार पर अंतर है। मध्य और पूर्वी भारत की जनजातियां (मुरिया, भील, गोंड, जुआंग और संथाल) सभी उत्सवों पर नृत्य करती हैं। ऋतुओं के वार्षिक चक्र के लिए भी अलग-अलग नृत्य हैं। नृत्य धार्मिक, आध्यात्मिक अनुष्ठानों का अंग है। भारतीय लोकनृत्यों को तीन वर्गों में समझा जा सकता है।‘‘
- रेखा त्रिगुणायत
भारतीय नृत्य शैली का इतिहास पूर्व वैदिक काल यानी सिंधु घाटी सभ्यता से जुड़ा हुआ है। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा में खुदाई के दौरान मिली नृत्य करती मूर्ति से पता चलता है कि उस समय के लोगों के सामाजिक जीवन में नृत्य का महत्वपूर्ण स्थान था और वे इस कला में पारंगत थे। भारतीय लोगों को 5000-6000 ईसा पूर्व भी संगीत और नृत्य का ज्ञान था। द्रविड़ों द्वारा नृत्य की कला भी उच्च कोटि की थी और उनके जीवन से हमें एकरूपता, दूरदर्शिता और आंतरिक सौंदर्य की समृद्धि के बारे में पता चलता है। द्रविड़ महिलाएं नृत्य में निपुण और सुंदर थी। भारत के आदिवासी, वनवासी सहित अनेक समूहों के नृत्य आकर्षक रहे हैं। मांगलिक उत्सव में बच्चों से लेकर बूढ़े, बुजुर्ग भी आध्यात्मिक नृत्यों का आनंद लेते रहे हैं। सभी राज्यों के भी अपने-अपने नृत्य हैं और वह अब भी होते हैं। यूपी के अवध क्षेत्र में लिल्ली घोड़ी और हुड़क नृत्य की परम्परा रही है। लिल्ली घोड़ी में लकड़ी या दफ्ती से घोड़ी बनाते हैं। लकड़ी या अन्य किसी पदार्थ से बनी घोड़ीके भीतर सजा-धजा नर्तक नाचता है। नाटकों की भी परंपरा यहां रही है। उत्तर प्रदेश, बिहार विशेषतया भोजपुरी क्षेत्रों में नौटंकी का अपना मजा है। नौटंकी में अनेक कथाएं लोकप्रिय थीं। राजा हरिश्चन्द्र की कथा भारतीय मूल्य बोध से जुड़ी है। अनेक कथाएं प्रेम के कथानक से भरी-पूरी थीं। अब आरकेस्ट्रा का चलन बढ़ा है। इसमें नृत्य में आध्यात्मिक तत्व नहीं हैं। न प्रीति का भाव है और न सौंदर्य बोध का पालन। नग्न देह की परेड है। लोकनृत्य लोक कलाओं में सुरक्षित है और शास्त्रीय नृत्य भी। यह कला प्रेमियों का मार्गदर्शन करते हैं। भारत विभिन्न परंपराओं का देश है।
इन लोक नृत्य विभिन्न सामाजिक आध्यात्मिक मांगलिक उत्सवों में प्रसन्नता व्यक्त करने के माध्यम हैं जैसे कि ऋतुओं, बच्चों का जन्म, त्यौहार आदि। हर त्योहार में उत्सव जुड़े हैं। लोक नृत्य हमारे अभिन्न अंग बन जाते हैं। इन नृत्यों के दौरान पारंपरिक वेशभूषा या रंगमंच की सामग्री का उपयोग भी किया जाता है। भारत में दो प्रमुख नृत्य रूप हैं - शास्त्रीय और लोक नृत्य। शास्त्रीय और लोक नृत्य के बीच अंतर है। शास्त्रीय नृत्य का नाट्य शास्त्र के साथ गहरा रिश्ता है। यह अनुशासित है। प्रत्येक शास्त्रीय नृत्य के विशिष्ट रूप हैं। लोक नृत्य संबंधित राज्य, जातीय या भौगोलिक क्षेत्रों की स्थानीय परंपरा से उभरा है। माना जाता है कि भारत में शास्त्रीय नृत्य की उत्पत्ति नाट्य शास्त्र से हुई है। विद्वानों के अनुसार भारत में कुल नौ शास्त्रीय नृत्य हैं।
भारतीय लोकनृत्यों के अनेक स्वरूप और ताल हैं। इनमें अध्यात्म धर्म, व्यवसाय और समूह के आधार पर अंतर है। मध्य और पूर्वी भारत की जनजातियां (मुरिया, भील, गोंड, जुआंग और संथाल) सभी उत्सवों पर नृत्य करती हैं। ऋतुओं के वार्षिक चक्र के लिए भी अलग-अलग नृत्य हैं। नृत्य धार्मिक, आध्यात्मिक अनुष्ठानों का अंग है। भारतीय लोकनृत्यों को तीन वर्गों में समझा जा सकता है। पहला, वृत्तिमूलक जैसे जुताई, बुआई आदि है। दूसरा, आध्यात्मिक है। तीसरा, आनुष्ठानिक है। यह देवी या देवों को प्रसन्न करने से जुड़ा है।
प्रसिद्ध लोकनृत्यों में कोलयाचा (कोलियों का नृत्य) है। पश्चिमी भारत के कोंकण तट के मछुआरों के मूल नृत्य कोलयाचा में नौकायन की भावभंगिमा दिखाई जाती है। नृत्य के चरम पर नव दम्पति भी नाचने लगते हैं। घूमर राजस्थान का सामाजिक लोकनृत्य है। महिलाएं लम्बे घाघरे और रंगीन चुनरी पहनकर नृत्य करती हैं। इस क्षेत्र का कच्ची घोड़ी नर्तक दर्शनीय है। ढाल और लंबी तलवारों से लैस नर्तकों का ऊपरी भाग दूल्हे की वेशभूषा में रहता है। निचले भाग को बांस के ढांचे पर कागज की लुगदी से बने घोड़े से ढका जाता है। भागड़ा पंजाब क्षेत्र का चर्चित लोकनृत्य है। यह भारत-पाकिस्तान सीमा के दोनों ओर लोकप्रिय है। ढोल गूंजता है। सभी नर्तक मिलकर गाते हैं। आंध्र प्रदेश की लंबाड़ी जनजाति की महिलाएं धीरे-धीरे झूमते हुए नृत्य करती हैं। पुरूष ढोल बजाने और गाने का काम करते हैं। कुचीपुड़ी भी महत्वपूर्ण है। मध्य प्रदेश में मुरिया जनजाति का गवल-सींग (पहाड़ी भैंसा) नृत्य में पुरूष सींग से जुड़े शिरोवस्त्र गुच्छेदार पंख के साथ पहनते हैं। उनके चेहरों पर कौड़ी की झालर लटकती है। गले में ढोल लटकता है। उड़ीसा में जुआंग जनजाति बड़े सजीव अभिनय के साथ नृत्य करती हैं। महाराष्ट्र के डिंडी और काला नृत्य आध्यात्मिक, धार्मिक उल्लास की अभिव्यक्ति है। नर्तक गोल चक्कर घूमते हैं और छोटी लाठियां जमीन पर मारते हुए समूह गान के मुख्य गायक बीचों बीच खड़े ढोल वादक का साथ देते हैं। गरबा, गुजरात का सुप्रसिद्ध धार्मिक नृत्य है। यह नवरात्रि के दौरान 50 से 100 महिलाओं के समूह द्वारा देवी अंबा के सम्मान में किया जाता है। धार्मिक अनुष्ठान से जुड़े तमिलनाडु के लोकनृत्य हैं। इनकी शैलियां यह पुरातन उपासना से जुड़ी हैं। यह आध्यात्मिक हैं। तमिलनाडु का कराकम नृत्य मुख्यतः मरियम्मई (महामारी की देवी) की प्रतिमा के समक्ष होता है। देवी से महामारी का प्रकोप न फैलाने की प्रार्थना की जाती है। कहते हैं कि नर्तक के शरीर में देवी प्रवेश करती हैं। केरल में हिन्दुओं के देवोंको प्रसन्न करने के लिए थेरयाट्टम उत्सव नृत्य आयोजित किया जाता है। अरूणाचल प्रदेश (भूतपूर्व पूर्वोत्तर फ्रंटियर एजेंसी ‘नेफा) में सबसे ज्यादा मुखौटा नृत्य किये जाते हैं। यहां तिब्बत की नृत्य शैलियों का प्रभाव दिखाई देता है। याक नृत्य कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र और असम के निकट हिमालय के दक्षिणी सीमावर्ती क्षेत्रों में किया जाता है। याक का रूप धारण किये नर्तक अपनी पीठ पर चढ़े आदमी को साथ लिए नृत्य करता है। मुखौटा नृत्य की अनूठी शैली छऊ झारखंड में प्रचलित है। नर्तक पशु, पक्षी इन्द्रधनुष, या फूल का रूप धारण करता है। वह अभिनय करता है। छऊ नर्तक का चेहरा भावहीन होता है। स्वतंत्रता के बाद भारतीय नृत्य आम आदमी के घरों में प्रवेश कर गए हैं और इस कला ने समाज में एक दर्जा और मान्यता प्राप्त कर ली है। सभी वर्गों के लोग शास्त्रीय नृत्य सीखने में गर्व महसूस करते हैं। हमारी सरकार ने शास्त्रीय नृत्यों को प्रोत्साहित करने में सक्रिय भूमिका निभाई है और इसके परिणामस्वरूप इसका भविष्य काफी उज्ज्वल दिखाई देता है।