कुम्भ अमृत स्नान का अदृभुद अवसर

कुम्भ में स्नान करने से पापों का नाश और पुण्य की प्राप्ति होती है

- डी.एस. परिहार

कुम्भ मेले का अर्थ है अमरत्व का मेला है, कुम्भ मेला हिन्दू धर्म का एक महत्वपूर्ण पर्व है, ग्रहों की अनुपम स्थिति गंगा आदि पवित्र नदियों के जल को औषधिकृत करती है तथा उन दिनों यह अमृतमय हो जाती है। यही कारण है कि अपनी अन्तरात्मा की शुद्धि हेतु पवित्र स्नान करने लाखों श्रद्धालु यहाँ आते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से अर्ध कुम्भ के काल में ग्रहों की स्थिति एकाग्रता तथा ध्यान साधना के लिए उत्कृष्ट होती है। इसमें करोड़ों श्रद्धालु कुम्भ पर्व स्थल प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में एकत्र होते हैं और नदी में स्नान करते हैं। इनमें से प्रत्येक स्थान पर प्रति 12 वें वर्ष तथा प्रयाग में दो कुम्भ पर्वों के बीच छह वर्ष के अन्तराल में अर्धकुम्भ भी होता है। 

कुम्भ पर्व के आयोजन को लेकर दो-तीन पौराणिक कथायें प्रचलित हैं जिनमें से सर्वाधिक मान्य कथा देव-दानवों द्वारा समुद्र मन्थन से प्राप्त अमृत कुम्भ से अमृत बूंदें गिरने को लेकर है। इस कथा के अनुसार महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण जब इन्द्र और अन्य देवता कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया। तब सब देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हे सारा वृतान्त सुनाया। तब भगवान विष्णु ने उन्हे दैत्यों के साथ मिलकर क्षीरसागर का मन्थन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर सम्पूर्ण देवता दैत्यों के साथ सन्धि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। अमृत कुम्भ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इन्द्रपुत्र जयन्त अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरू शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयन्त का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयन्त को पकड़ा। तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा। इस परस्पर मारकाट के दौरान सूर्य चन्द्र गुरू आदि ग्रहों की विशेष स्थितियों मे पृथ्वी के चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश से अमृत बून्दें गिरी थीं। उस समय चन्द्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरू ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शान्त करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बांटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अन्त किया गया। 

अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरन्तर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। देव गुरू बृहस्पति ने इस अवधि मे 12 राशियों का गोचर कर लिया अतएव कुम्भ भी बारह होते हैं। इस गोचर काल मे गुरू जब जब चार स्थिर राशियेंा में गये तथा सूर्य चन्द्रादि ग्रह विशेष राशियेंा मे थे तब घट से कुछ अमृत कर बंदे पृथ्वी पर चार स्थानों हरिद्वार नासिक उज्जैन व प्रयाग पर गिरी उनमें से चार कुम्भ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुम्भ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहाँ पहुँच नहीं है। जिस समय में चन्द्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चन्द्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुम्भ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वज्ंा पौराणिक विश्लेषण से यह साफ है कि कुम्भ पर्व एवं गंगा नदी आपस में सम्बंधित हैं। गंगा प्रयाग में बहती हैं परन्तु नासिक में बहने वाली गोदावरी को भी गंगा कहा जाता है, इसे हम गोमती गंगा के नाम से भी पुकारते हैं। शिप्रा नदी को काशी की उत्तरी गंगा से पहचाना जाता है। यहां पर गंगा गंगेश्वर की आराधना की जाती है। 

ज्योतिषीय गणना के अनुसार कुम्भ का पर्व 4 प्रकार से आयोजित किया जाता हैः -

1. कुम्भ राशि में बृहस्पति का प्रवेश होने पर एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर कुम्भ का पर्व हरिद्वार में आयोजित किया जाता है।

2. वृष राशि के चक्र में बृहस्पति एवं सूर्य और चन्द्र के मकर राशि में प्रवेश करने पर अमावस्या के दिन कुम्भ का पर्व प्रयाग में आयोजित किया जाता है।

3. सिंह राशि में बृहस्पति के प्रवेश होने पर कुम्भ पर्व गोदावरी के तट पर नासिक में होता है और सिंह राशि में बृहस्पति एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर यह पर्व उज्जैन में होता है।

प्रयाग की तरह ही नासिक और उज्जैन के लिए भी ज्योतिषीय विकल्प उपलब्ध हैं।

4. अमावस्या के दिन बृहस्पति, सूर्य एवं चन्द्र के कर्क राशि में प्रवेश होने पर भी कुम्भ पर्व गोदावरी तट पर आयोजित होता है।

कार्तिक अमावस्या के दिन सूर्य और चन्द्र के साथ होने पर एवं बृहस्पति के तुला राशि में प्रवेश होने पर मोक्ष दायक कुम्भ उज्जैन में आयोजित होता है।

पहले अर्धकुंभ के बारे में जानते हैं, दरअसल अर्धकुंभ मेला हर 6 वर्ष के अंतराल पर आयोजित किया जाता है। यह भारत में सिर्फ दो जगहों हरिद्वार और प्रयागराज में लगता है। अर्ध का अर्थ आधा होता है। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुम्भ लगता है, इसलिए इसे कुम्भ मेला के मध्य चरण के रूप में देखा जाता है।  

पूर्णकुम्भ 12 साल में एक बार लगता है। पूर्णकुम्भ मेला केवल प्रयागराज में आयोजित होता है। हालांकि पूर्णकुम्भ को भी महाकुंभ कहते हैं। इस बार यानी 2025 में 12 साल बाद प्रयागराज में पूर्णकुम्भ लगने वाला है। इसे धार्मिक उत्सव का उच्चतम स्तर माना जाता है। 

महाकुम्भ की बात करें तो यह 144 साल में सिर्फ एक ही बार लगता है। इसका आयोजन केवल प्रयागराज में होता है, 12 पूर्णकुम्भ के बाद होता है। महाकुम्भ लगने का निर्णय देवताओं के गुरू बृहस्पति और ग्रहों के राज्य सूर्य की स्थिति के हिसाब से किया जाता है। कुम्भ मेला आत्मशुद्धि, मोक्ष प्राप्ति और आध्यात्मिक ऊर्जा को जागृत करने का अवसर भी प्रदान करता है। कुम्भ में स्नान करने से पापों का नाश और पुण्य की प्राप्ति होती है। 




 

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